गुरुकुल
( वैदिक शिक्षण संस्था )
वैदिक काल में अनेक प्रकार के गुरुकुल होने का उल्लेख मिलता है-
(1) टोल- इनमें केवल भाषा और साहित्य की उच्च शिक्षा दी जाती थी।
(2) घटिका- इनमें भाषा, साहित्य, धर्म, दर्शन और नीतिशास्त्र का विशेष ज्ञान कराया जाता था।
(3) चरण- इनमें किसी वेद के किसी अंग विशेष का विशिष्ट ज्ञान कराया जाता था।
(4) चतुष्पथी- इनमें चारों शास्त्रों, दर्शन, पुराण, व्याकरण और राज नियमों की शिक्षा दी जाती थी।
गुरुकुल में छात्र प्रवेश आयु--
गुरुकुल में प्रवेश के लिए भिन्न-भिन्न वर्ग के बालकों के लिए भिन्न-भिन्न आयु निर्धारित थी-----
- ब्राह्मण वर्ण के बालकों का 8 वर्ष की आयु पर
- क्षत्रिय वर्ण के बालकों का 10 वर्ष की आयु पर
- वैश्य वर्ण के बालकों का 12 वर्ष की आयु पर
नोट(1)- तीव्र बुद्धि वाले ब्राह्मण का 5 वर्ष, बलवान छत्रिय का 6 वर्ष और कृषि आदि करने की इच्छा वाले वैश्य का 8 वर्ष की अवस्था में भी उपनयन संस्कार किया जा सकता था।
नोट(2) - तीनों वर्णों के बालकों की अवस्थाओं में अंतर का कारण विभिन्न वर्णों के परिवारों में पढ़ने पढ़ाने के वातावरण के कारण था।
गुरुकुल में प्रवेश शुल्क--
गुरुकुलों में गुरु विद्यादान आरंभ करने से पूर्व ना तो आए हुए विद्यार्थी से कुछ मांगता और ना ही उसके बिना किसी विद्यार्थी को अपने द्वार से लौटाता था। धनवान और गरीब सभी योग्य विद्यार्थियों के लिए गुरुकुलों के द्वार सदैव खुले रहते थे।
गुरुकुल में छात्रों का प्रवेश और उपनयन संस्कार-
बालकों की शिक्षा का आरंभ उपनयन संस्कार के साथ होता था।
उपनयन का अर्थ है - समीप लाना अर्थात बच्चे को गुरु के सम्मुख उपस्थित करना।
सर्वप्रथम बच्चे को ब्रह्मचारी के वस्त्र पहनाए जाते थे उसे मेखला* धारण कराई जाती थी, उसके हाथ में समिधा (एक प्रकार की लकड़ी) दी जाती थी।
गुरु बच्चे से प्रश्न करता था- 'कस्य ब्रह्मचारी असि' अर्थात तुम किसके शिष्य हो?
बच्चा उत्तर देता था- 'भवतः' अर्थात आपका।
तत्पश्चात बच्चे को यज्ञवेदी के सामने बैठा कर वेद मंत्रों से आराधना की जाती थी और बच्चे को यज्ञोपवीत अर्थात जनेऊ धारण कराया जाता था इसी के साथ बच्चा गुरुकुल के नियमों और ब्रम्हचर्य व्रत के पालन का वचन देता था और गुरु उसे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करता था।
*नोट- मेखला तीनों वर्णों के लिए अलग-अलग निर्धारित थी।
- ब्राह्मण वर्ण के लिए मूंज की।
- क्षत्रिय बालक के लिए धनुष की डोरी की।
- वैश्य बालक के लिए ऊन के धागे की।
उपनयन संस्कार के बाद बालक ' द्विज ' कहलाता था। क्योंकि इस संसार को बालक का दूसरा जन्म समझा जाता था। इस संस्कार के बाद बालक का उत्तरदायित्व बहुत बढ़ जाता था। इसी कारण उपनयन संस्कार का बहुत महत्व था। बालक को इस बात की अनुभूति कराई जाती थी कि वह अपने परिवार और समुदाय के प्रति अपने कर्तव्यों को भली-भांति समझने के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर अभीष्ट योग्यता प्राप्त करें।
गुरुकुल की दिनचर्या एवं शिक्षण कार्य --
वैदिक काल में गुरुकुल की दिनचर्या नियमित और कठोर होती थी। गुरुकुल के निर्धारित नियमों का पालन सभी को करना होता था। गुरु और शिष्य प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठकर उठते थे। शिष्य दैनिक नित्यकर्म से निवृत्त होकर कार्य विभाजन के अनुसार गुरु के स्नानादि एवं पूजा पाठ की व्यवस्था करते थे। सभी शिष्य गुरु गृह और गुरुकुल की व्यवस्था देखते थे। भिक्षा के लिए जाते थे। जंगल से लकड़ी लाते थे। जल स्रोतों से जल लाते थे तथा अन्य शेष कार्य करते थे। इसके बाद शिक्षण कार्य प्रारंभ होता था, जो मध्यान्ह तक होता था मध्यान्ह भोजन और विश्राम के बाद पुनः शिक्षण कार्य होता था। वैदिक काल में आज की भांति कक्षा कक्ष उपलब्ध नहीं थे। इसलिए शिक्षण कार्य खुले मैदानों में पेड़ों की छाया में होता था।
गुरुकुल में परीक्षाएं एवं उपाधियाँ --
वैदिक काल में वर्तमान की तरह परीक्षाएं नहीं होती थी। सर्वप्रथम गुरु ही मौखिक प्रश्न पूछ कर यह निर्णय करते थे कि किसी शिष्य ने उचित ज्ञान प्राप्त कर लिया है अथवा नहीं इसके बाद छात्र को विद्वानों की सभा में उपस्थित किया जाता था। यह विद्वान छात्रों से प्रश्न पूछते थे और संतुष्ट होने पर उन्हें सफल घोषित करते थे।
वैदिक काल में छात्रों की योग्यता ही उनका प्रमाण पत्र होती थी। उन्हें कोई अंकपत्र या प्रमाण पत्र नहीं दिये जाते थे। छात्रों को अगर लिखित उपाधियाँ अवश्य प्रदान की जाती थी।
- स्नातक- ऐसे छात्र जो गुरुकुल का 12 वर्षीय सामान्य पाठ्यक्रम अथवा किसी एक वेद का अध्ययन पूरा कर लेते थे।
- वसु- ऐसे छात्र जो गुरुकुल का 24 वर्षीय पाठ्यक्रम या किन्ही दो वेदों का अध्ययन पूरा कर लेते थे।
- रूद्र- ऐसे छात्र जो गुरुकुल का 36 वर्षीय पाठ्यक्रम या किन्ही तीन वेदों का अध्ययन पूरा कर लेते थे।
- आदित्य- ऐसे छात्र जो गुरुकुल का 48 वर्षीय पाठ्यक्रम या चारों वेदों का अध्ययन पूरा कर लेते थे।
समावर्तन समारोह:-
समावर्तन का शाब्दिक अर्थ है - वापस लौटना या घर लौटना ।
वैदिक काल में विद्यार्थियों की गुरुकुल शिक्षा पूर्ण होने पर समावर्तन समारोह होता था। जिसमें गुरु द्वारा उपदेश देकर शिष्य को गुरुकुल से विदाई दी जाती थी। गुरु द्वारा अपने उपदेश में गृहस्थ जीवन के दायित्वों के बारे में बताया जाता था। वे शिष्यों को पितृऋण, गुरुऋण और देवऋण से उऋण होने का उपदेश देते थे। तैत्तिरीय उपनिषद में इस प्रकार के दीक्षांत भाषण का उल्लेख है । समावर्तन समारोह वर्तमान में विश्वविद्यालयों में आयोजित होने वाले दीक्षांत समारोह की भाँति ही था।